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च꣣न्द्र꣡मा꣢ अ꣣प्स्वा꣢३꣱न्त꣡रा सु꣢꣯प꣣र्णो꣡ धा꣢वते दि꣣वि꣢ । न꣡ वो꣢ हिरण्यनेमयः प꣣दं꣡ वि꣢न्दन्ति विद्युतो वि꣣त्तं꣡ मे꣢ अ꣣स्य꣡ रो꣢दसी ॥४१७॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

चन्द्रमा अप्स्वा३न्तरा सुपर्णो धावते दिवि । न वो हिरण्यनेमयः पदं विन्दन्ति विद्युतो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥४१७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

च꣣न्द्र꣡माः꣢ । च꣣न्द्र꣢ । माः꣣ । अप्सु꣢ । अ꣣न्तः꣢ । आ । सु꣣पर्णः꣢ । सु꣣ । पर्णः꣢ । धा꣣वते । दिवि꣢ । न । वः꣣ । हिरण्यनेमयः । हिरण्य । नेमयः । पद꣢म् । वि꣣न्दन्ति । विद्युतः । वि । द्युतः । वित्त꣢म् । मे꣣ । अस्य꣢ । रो꣣दसीइ꣡ति꣢ ॥४१७॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 417 | (कौथोम) 5 » 1 » 3 » 9 | (रानायाणीय) 4 » 7 » 9


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र के विश्वेदेवाः देवता हैं। इसमें सूर्य, चन्द्र आदि की गति के प्रसङ्ग से इन्द्र की महिमा वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(चन्द्रमाः) चन्द्रमा (अप्सु अन्तः) अन्तरिक्ष के मध्य में, और (सुपर्णः) किरणरूप सुन्दर पंखोंवाला सूर्य (दिवि) द्युलोक में (आ धावते) चारों ओर दौड़ रहा है, अर्थात् चन्द्रमा अपनी धुरी पर घूमने के साथ-साथ पृथिवी और सूर्य के चारों ओर भी घूम रहा है, तथा सूर्य केवल अपनी धुरी पर घूम रहा है, इस बात को सब जानते हैं, किन्तु हे (हिरण्यनेमयः) स्वर्णिम् चक्रोंवाले (विद्युतः) विद्योतमान चन्द्र, सूर्य, विद्युत् आदियो ! (वः) तुम्हारे (पदम्) गतिप्रदाता को, कोई भी (न विन्दन्ति) नहीं जानते हैं। हे (रोदसी) स्त्रीपुरुषो अथवा राजा-प्रजाओ ! तुम (मे) मेरी (अस्य) इस बात को (वित्तम्) समझो। अभिप्राय यह है कि उस इन्द्र परमात्मा को साक्षात्कार करने का तुम प्रयत्न करो, जिसकी गति से यह सब-कुछ गतिमान् बना है ॥९॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्यों को प्राकृतिक पदार्थों के गति, प्रकाश आदि विषयक ज्ञान से ही सन्तोष नहीं करना चाहिए, किन्तु उसे भी जानना चाहिए जो इन पदार्थों को पैदा करनेवाला, इन्हें गति, प्रकाश आदि प्रदान करनेवाला और इनकी व्यवस्था करनेवाला है ॥९॥ इस ऋचा की व्याख्या में विवरणकार माधव ने त्रित- विषयक वही इतिहास लिखा है, जो पूर्व संख्या ३६८ के मन्त्र पर प्रदर्शित किया जा चुका है। भरत स्वामी ने भिन्न इतिहास दिखाया है—एकत, द्वित और त्रित ये तीनों आप्त के पुत्र थे। वे जब यज्ञ कराकर, गौएँ लेकर लौट रहे थे, तब मरुस्थल में प्यास से व्याकुल होकर, वहाँ एक कुएँ को देखकर वहीं रुक गये और कुएँ में उतरने का विचार करने लगे। पहले त्रित कुएँ में उतर गया। शेष दोनों को बाहर ही पानी मिल गया और वे पानी पीकर तृप्त हो गये तथा कुएँ को एक चक्र से बन्द करके गौएँ लेकर चलते बने। इधर कुएँ में बन्द पड़ा हुआ त्रित देवों की स्तुति करने लगा। वह कुआँ निर्जल था, जिसमें त्रित प्यास से व्याकुल होकर उतरा था। वहीं पड़ा-पड़ा वह रात्रि में चन्द्रमा को देखकर विलाप करने लगा कि चन्द्रमा पानी में स्थित हुआ अन्तरिक्ष में दौड़ रहा है आदि। किसी तरह मेरी प्यास बुझ जाए, इसलिए उसका विलाप है। वह कहता है कि हे आकाश और भूमि, तुम मेरे इस संकट को जानो ॥’’ यहाँ माधव और भरत स्वामी के इतिहासों में अन्तर ही उनके कल्पनाप्रसूत होने में प्रमाण है ॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ विश्वेदेवा देवताः। अत्र सूर्यचन्द्रादिगतिप्रसङ्गेनेन्द्रस्य महिमानमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(चन्द्रमाः) चन्द्रः (अप्सु अन्तः) अन्तरिक्षस्य मध्ये। आपः इत्यन्तरिक्षनामसु पठितम्। निघं० १।३। (सुपर्णः) किरणरूपचारुपक्षयुक्तः सूर्यश्च (दिवि) द्युलोके (आ धावते) समन्ततो गच्छति, (चन्द्रः) स्वधुरि पृथिवीं सूर्यं च परितः, सूर्यश्च स्वधुरि एव भ्रमतीत्यर्थः, इति सर्वे जानन्ति, किन्तु हे (हिरण्यनेमयः) स्वर्णिमचक्राः (विद्युतः) विद्योतमानाः चन्द्रसूर्यनक्षत्रतडिद्वह्न्यादयः, (वः) युष्माकम् (पदम्) गतिप्रदातारम् इन्द्रं परमात्मानम्। पद गतौ, पदयति गमयतीति पदः, तम्। केचिदपि (न विन्दन्ति) न लभन्ते। विद्लृ लाभे तुदादिः, मुचादित्वान्नुम्। हे (रोदसी२) स्त्रीपुरुषौ राजप्रजे वा ! युवाम् (मे अस्य) एतत् कथनम् (वित्तम्) जानीतम्। अत्र द्वितीयार्थे षष्ठी। तमिन्द्रं परमात्मानं साक्षात्कर्तुं युवां प्रयतेथां यस्य गत्या भासा च सर्वमिदं गतिमत् भास्वच्च तिष्ठतीत्याशयः, अत्र हिरण्यनेमयः, विद्युतः, रोदसी इति सर्वत्र आमन्त्रितनिघातः ॥९॥३

भावार्थभाषाः -

जनैः प्राकृतिकपदार्थानां गतिद्युत्यादिविषयकज्ञानेनैव न सन्तोष्टव्यं, किन्तु सोऽपि विज्ञातव्यो य एतेषां पदार्थानां जनको गतिद्युत्यादिप्रदाता व्यवस्थापकश्च विद्यते ॥९॥ अस्या ऋचो व्याख्याने विवरणकृता माधवेन ३६८ संख्यकमन्त्रभाष्ये पूर्वप्रदत्तः त्रितविषयक इतिहास एव प्रदर्शितः। भरतस्त्वाह— एकतश्चद्वितश्चैवत्रितश्चाप्तस्य सूनवः। ते याजयित्वा सर्वा गा निवृत्ता मरुधन्वसु ॥ पिपासयार्तास्तत्रैकं कूपं लब्ध्वा हि तत्स्थिताः। अवरोढुं तमिच्छन्तस्त्रितस्तत्रावरूढवान् ॥ इतरौतुबहिर्लब्ध्वा पीत्वोदकमतृप्यताम्। कूपंपिधायचक्रेण तं गा आदाय जग्मतुः ॥ त्रितस्तु कूपे पिहितो देवान् स्तौतीति नः श्रुतम्। स कूपोनिर्जलो नूनंयत्रासौपतितस्तृषा ॥ तस्यचन्द्रमसंरात्रौ पश्यतःपरिदेवना ॥ चन्द्रमा अप्स्वन्तः अम्मये मण्डले स्थितः आधावते दिवि अन्तरिक्षे....।....पिपासा मे शाम्येदिति परिदेवना....हे द्यावाभूमी, वित्तं विजानीत मे मदीयस्य अस्य व्यसनस्य...इति। अत्र माधवभरत- स्वामिनोरितिहासेऽन्तरमेव तत्कल्पनाप्रसूतत्वे प्रमाणम् ॥

टिप्पणी: १. ऋ० १।१०५।१ ऋषिः आप्त्यस्त्रित आङ्गिरसः कुत्सो वा। य० ३३।९०, ‘रयिं पिशङ्गं बहुलं पुरुस्पृह हरिरेति कनिक्रदत्’ इत्युत्तरार्धः। अथ० १८।४।८९, ऋषिः अथर्वा, देवता चन्द्रमाः। २. (रोदसी) द्यावापृथिव्याविव राजप्रजे जनसमूहौ इति ऋ० १।१०५।१ भाष्ये द०। ३. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतं चन्द्रविद्युद्विद्याविषये व्याख्यातवान्।